Sunday 12 August 2012

maut sai sakshakar

त से हुये साक्षात्कार ने किया प्रेरित 
भोपाल। वाक्या करीब 8 साल पुराना है। महाराष्ट्र प्रवास के दौरान रेलवे लाइन पार करते समय एक ट्रेन के नीचे आते मैं बाल-बाल बचा। तभी एक ने कमेन्ट्स किया, बच गये वरना लावारिस की तरह मरते और अंतिम संस्कार करने वाला भी कोई नहीं मिलता। उस अंजान व्यक्ति की यह अंतिम बात मुझे चुभ गई। भोपाल आकर लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की जानकारी ली तो हेैरत में पड़ गया। पुलिस के पास न तो कोई फंड, न दीगर व्यवस्थायें, न कोई ऐसी संस्था जो इस काम में पुलिस का हाथ बंटाती हो। तब ही लावारिस व गरीब लोगों की मौत प 

र उनके अंतिम संस्कार कराने में हाथ बंटाने के लिये जन संवेदना नामक संस्था का गठन किया। विषय संवेदनशील था लेकिन एकदम नया। उद्देश्य जानने के बाद लोग मौके पर तो संवेदनायें जताते लेकिन पीट फेरते ही मजाक उड़ाने से भी नहीं चूकते। दूसरों की बात ही क्यों की जाये, शुरुआत में तो परिजनों के गले भी मेरी बात नहीं बैठी। मैं अपने ध्येय पर कायम रहा। शुरुआत में काफी दिक्कतें आना स्वाभाविक है। अपना मिशन जारी रखा। पांच साल बाद अब संस्था को देश के अनेक राज्यों के लोग मदद कर रहे हैं। विशेषकर राजस्थान के लोग इस मामले में अधिक संवेदनशील हैं। मप्र खासकर भोपाल में अब तक अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। बहरहाल, संस्था अपने मिशन में जुटी रही और आज मुझ्र यह बताते हुये संतोष है कि जनसंवेदना अब तक सात सौ से अधिक लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार में सहयोग प्रदान कर चुकी है। राजधानी के प्रत्येक थाने के पुलिस कर्मियों को जनसंवेदना की सेवाओं की जानकारी है। जरुरत के समय वह संस्था की मदद लेते हैं। अब भी मेरा ज्यादातर समय अपने ध्येय को पूरा करने में गुजरता है। लीक से हटकर कार्य करने में तकलीफ होना स्वाभाविक है। कहते हैं-संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, भाग्य-दुर्भाग्य सब इसी धरती पर है। व्यक्ति की मौत के बाद ही सही, लेकिन मानव सेवा के इस पुण्य कार्य ने मुझ्र अभूतपूर्व आत्मिक सुख प्रदान किया है।   

साक्षात्कार ने किया प्रेरित

त से हुये साक्षात्कार ने किया प्रेरित 
भोपाल। वाक्या करीब 8 साल पुराना है। महाराष्ट्र प्रवास के दौरान रेलवे लाइन पार करते समय एक ट्रेन के नीचे आते मैं बाल-बाल बचा। तभी एक ने कमेन्ट्स किया, बच गये वरना लावारिस की तरह मरते और अंतिम संस्कार करने वाला भी कोई नहीं मिलता। उस अंजान व्यक्ति की यह अंतिम बात मुझे चुभ गई। भोपाल आकर लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की जानकारी ली तो हेैरत में पड़ गया। पुलिस के पास न तो कोई फंड, न दीगर व्यवस्थायें, न कोई ऐसी संस्था जो इस काम में पुलिस का हाथ बंटाती हो। तब ही लावारिस व गरीब लोगों की मौत प 

र उनके अंतिम संस्कार कराने में हाथ बंटाने के लिये जन संवेदना नामक संस्था का गठन किया। विषय संवेदनशील था लेकिन एकदम नया। उद्देश्य जानने के बाद लोग मौके पर तो संवेदनायें जताते लेकिन पीट फेरते ही मजाक उड़ाने से भी नहीं चूकते। दूसरों की बात ही क्यों की जाये, शुरुआत में तो परिजनों के गले भी मेरी बात नहीं बैठी। मैं अपने ध्येय पर कायम रहा। शुरुआत में काफी दिक्कतें आना स्वाभाविक है। अपना मिशन जारी रखा। पांच साल बाद अब संस्था को देश के अनेक राज्यों के लोग मदद कर रहे हैं। विशेषकर राजस्थान के लोग इस मामले में अधिक संवेदनशील हैं। मप्र खासकर भोपाल में अब तक अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। बहरहाल, संस्था अपने मिशन में जुटी रही और आज मुझ्र यह बताते हुये संतोष है कि जनसंवेदना अब तक सात सौ से अधिक लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार में सहयोग प्रदान कर चुकी है। राजधानी के प्रत्येक थाने के पुलिस कर्मियों को जनसंवेदना की सेवाओं की जानकारी है। जरुरत के समय वह संस्था की मदद लेते हैं। अब भी मेरा ज्यादातर समय अपने ध्येय को पूरा करने में गुजरता है। लीक से हटकर कार्य करने में तकलीफ होना स्वाभाविक है। कहते हैं-संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, भाग्य-दुर्भाग्य सब इसी धरती पर है। व्यक्ति की मौत के बाद ही सही, लेकिन मानव सेवा के इस पुण्य कार्य ने मुझ्र अभूतपूर्व आत्मिक सुख प्रदान किया है। 

भोपाल। वाक्या करीब 8 साल पुराना है। महाराष्ट्र प्रवास के दौरान रेलवे लाइन पार करते समय एक ट्रेन के नीचे आते मैं बाल-बाल बचा। तभी एक ने कमेन्ट्स किया, बच गये वरना लावारिस की तरह मरते और अंतिम संस्कार करने वाला भी कोई नहीं मिलता। उस अंजान व्यक्ति की यह अंतिम बात मुझे चुभ गई। भोपाल आकर लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार की जानकारी ली तो हेैरत में पड़ गया। पुलिस के पास न तो कोई फंड, न दीगर व्यवस्थायें, न कोई ऐसी संस्था जो इस काम में पुलिस का हाथ बंटाती हो। तब ही लावारिस व गरीब लोगों की मौत प 

र उनके अंतिम संस्कार कराने में हाथ बंटाने के लिये जन संवेदना नामक संस्था का गठन किया। विषय संवेदनशील था लेकिन एकदम नया। उद्देश्य जानने के बाद लोग मौके पर तो संवेदनायें जताते लेकिन पीट फेरते ही मजाक उड़ाने से भी नहीं चूकते। दूसरों की बात ही क्यों की जाये, शुरुआत में तो परिजनों के गले भी मेरी बात नहीं बैठी। मैं अपने ध्येय पर कायम रहा। शुरुआत में काफी दिक्कतें आना स्वाभाविक है। अपना मिशन जारी रखा। पांच साल बाद अब संस्था को देश के अनेक राज्यों के लोग मदद कर रहे हैं। विशेषकर राजस्थान के लोग इस मामले में अधिक संवेदनशील हैं। मप्र खासकर भोपाल में अब तक अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। बहरहाल, संस्था अपने मिशन में जुटी रही और आज मुझ्र यह बताते हुये संतोष है कि जनसंवेदना अब तक सात सौ से अधिक लावारिस लाशों के अंतिम संस्कार में सहयोग प्रदान कर चुकी है। राजधानी के प्रत्येक थाने के पुलिस कर्मियों को जनसंवेदना की सेवाओं की जानकारी है। जरुरत के समय वह संस्था की मदद लेते हैं। अब भी मेरा ज्यादातर समय अपने ध्येय को पूरा करने में गुजरता है। लीक से हटकर कार्य करने में तकलीफ होना स्वाभाविक है। कहते हैं-संतोष से बड़ा कोई सुख नहीं। पाप-पुण्य, स्वर्ग-नर्क, भाग्य-दुर्भाग्य सब इसी धरती पर है। व्यक्ति की मौत के बाद ही सही, लेकिन मानव सेवा के इस पुण्य कार्य ने मुझ्र अभूतपूर्व आत्मिक सुख प्रदान किया है। 

Friday 19 August 2011

जाओ, मैं गालियां नहीं लेता” – बुद्ध

जाओ, मैं गालियां नहीं लेता” – बुद्ध

बुद्ध एक बार एक गांव के पास से निकलते थे. उस गांव के लोग उनके शत्रु थे. हमेशा ही जो भले लोग होते हैं, उनके हम शत्रु रहें हैं. उस गांव के लोग भी हमारे जैसे लोग होंगे. तो वे भी बुद्ध के शत्रु थे. बुद्ध उस गांव से निकले तो गांव वालों ने रास्ते पर उन्हें घेर लिया. उन्हें बहुत गालियां दी और अपमानित भी किया.

बुद्ध ने सुना और फिर उनसे कहा, “मेरे मित्रों तुम्हारी बात पूरी हो गई हो तो मैं जाऊं, मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है”. वे लोग थोड़े हैरान हुए होंगे. और उन्होंने कहा, “हमने क्या कोई मीठी बातें कहीं हैं, हमने तो गालियां दी हैं सीधी और स्पष्ट. तुम क्रोध क्यों नहीं करते, प्रतिक्रिया क्यों नहीं देते?”

बुद्ध ने कहा, “तुमने थोड़ी देर कर दी. अगर तुम दस वर्ष पहले आए होते तो मजा आ गया होता. मैं भी तुम्हें गालियां देता. मैं भी क्रोधित होता. थोड़ा रस आता, बातचीत होती, मगर तुम लोग थोड़ी देर करके आए हो”. बुद्ध ने कहा, “अब मैं उस जगह हूं कि तुम्हारी गाली लेने में असमर्थ हूं. तुमने गालियां दीं, वह तो ठीक लेकिन तुम्हारे देने से ही क्या होता है, मुझे भी तो उन्हें लेने के लिए बराबरी का भागीदार होना चाहिए. मैं उसे लूं तभी तो उसका परिणाम हो सकता है. लेकिन मैं तुम्हारी गाली लेता नहीं. मैं दूसरे गांव से निकला था वहां के लोग मिठाइयां लाए थे भेंट करने. मैंने उनसे कहा कि मेरा पेट भरा है तो वे मिठाइयां वापस ले गए. जब मैं न लूंगा तो कोई मुझे कैसे दे पाएगा”.

बुद्ध ने उन लोगों से पूछा, “वे लोग मिठाइयां ले गए उन्होंने क्या किया होगा?” एक आदमी ने भीड़ में से कहा, “उन्होंने अपने बच्चों और परिवार में बांट दी होगी”. बुद्ध ने कहा, “मित्रों, तुम गालियां लाए हो मैं लेता नहीं. अब तुम क्या करोगे, घर ले जाओगे, बांटोगे? मुझे तुम पर बड़ी दया आती है, अब तुम इन इन गालियों का क्या करोगे, क्योंकि मैं इन्हें लेता नहीं? क्योंकि, जिसकी आंख खुली है वह गाली लेगा और जब मैं लेता ही नहीं तो क्रोध का सवाल ही नहीं उठता. जब मैं ले लूं तब क्रोध उठ सकता है. आंखे रहते हुए मैं कैसे कांटों पर चलूं और आंखे रहते हुए मैं कैसे गालियां लूं और होश रहते मैं कैसे क्रोधित हो जाऊं, मैं बड़ी मुश्किल में हूं. मुझे क्षमा कर दो. तुम गलत आदमी के पास आ गए. मैं जाऊं मुझे दूसरे गांव जाना है”. उस गांव के लोग कैसे निराश नहीं हो गए होंगे, कैसे उदास नहीं हो गए होंगे? आप ही सोचिये?

बुद्ध ने क्या कहा? यही कि इस बुद्ध ने क्रोध को दबाया नहीं है. यह बुद्ध भीतर से जाग गया है इसलिए क्रोध अब नहीं है. अस्तु .


बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के बीच भ्रष्टाचार पर परिपेक्ष्य अंतर:


बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के बीच भ्रष्टाचार पर परिपेक्ष्य अंतर:
एक बार एक गाँव में एक भैंस कूएं में गिर गयी. और आसपास बहुत दुर्गन्ध आने लगी... जब एक पंडित जी से इसका उपाय पुछा तो उत्तर मिला के इस कूएं में गंगा जल छिड़का जाये और हवन करवाया जाये.......१-२ महीने के बाद दुर्गन्ध फिर से आने लगी..लोग दुबारा पंडित के पास गए..पंडित ने पुछा के क्या तुम लोगों ने भैंस पानी से निकाली थी..लोगों ने जवाब दिया के... पंडित जी...भैंस तो हमने नहीं निकली वो तो अभी भी कूएं में है...पंडित जी ने कहा हे मूर्खो!!! जब तक भैंस पानी से बाहर नहीं निकालोगे.....गंगा जल और हवन अस्थायी तौर पर तो फ़ायदा कर सकता है...लेकिन उस रोग से मुक्त नहीं कर सकते...रोग का जब तक जड़ से इलाज नहीं करोगे..फिर से पनपने लगेगा.......सकता..ठीक उस प्रकार हे मेरे भोले भारत वासियों जन लोकपाल आपको थोड़े समय तक तो रहत दिला सकता है लेकिन अगर इस भ्रष्टचार नामक रोग का स्थायी इलाज़ चाहते हो तो बाबा रामदेव के आन्दोलन को विफल मत होने देना....जब तक विदेशों से कला धन वापिस नहीं आ जाता और भ्रष्टाचारी लोग सलाखों के पीछे अपना दंड नहीं भुगतते..चैन की सांस मत लेना.....

Sunday 3 July 2011

सामाजिक जागरूकता के अन्तर्गत वृक्षारोपण

killingसामाजिक जागरूकता के अन्तर्गत वृक्षारोपण
जनसंवेदना परिसर में

भोपाल 2 जुलाई 2011 । जनसंवेदना (मानव सेवा में समर्पित संस्था) मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में विगत 6 वर्षो से जनकल्याण के कार्यो में समर्पित है। जनसंवेदना का प्रमुख लक्ष्य निराश्रित, बेसहारा एवं लावारिस लोगों के अंतिम संस्कार में आर्थिक सहायता एवं सहयोग प्रदान करना है। इस पुण्य कार्य को संस्था जनसहयोग से पूर्ण करती है। जनसंवेदना के अन्य जन कल्याण कार्यो में निराश्रित, बेसहारा एवं लावारिस लोगों को भोजन एवं वस्त्र बाँटना भी है। संस्था द्वारा गरीब लड़कियों के विवाह में आर्थिक सहयोग भी किया जाता है। सामाजिक जागरूकता अभियानों में भी जनसंवेदना अपना महत्वपूर्ण योगदान देती है।
एकता साहू (जनसंवेदना प्रषासनिक अधिकारी के द्वारा) जानकारी दी गयी की संस्था द्वारा सामाजिक जागरूकता के अन्तर्गत वृक्षारोपण करके ये संदेष देने का प्रयास किया गया कि अभी भी मानव नही संभला तो जिस प्रकृति का नाष मनुष्य तेजी से कर रहा है एक दिन यही प्रकृति जो हमें जीवन दान देती है, इस प्रकृति का विनाषकारी रूप (बाढ़, सूखा, भूकंप) और भी भयावह हो जायेगा। इसलिए वृक्षारोपण करना बहुत जरूरी हैं, जिससे प्राकृतिक आपदाओं के खतरों को कम किया जा सकें।
इसी संदेश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए 2 जुलाई 2011 को अपरान्ह 130 पर जनसंवेदना (मानव कल्याण समिति) जेल घाटी परिसर में शिव कुमार चौबे (अध्यक्ष गौ सेवा आयोग एंव मुख्यमंत्री सलाहकार) रमेश शर्मा (उपाध्यक्ष राष्ट्रीय एकता परिषद), रामगोपाल शर्मा के आथित्य में वृक्षारोपण किया गया। आभार राधेष्याम अग्रवाल द्वारा किया गया कार्यक्रम में राधावल्लभ शरदा, सतीष सक्सेना, ओ. पी. ह्यारण, राजकुमार गर्ग, राज ठाकरे, मनमोहन कुरापा, प्रभावती शक्य, प्रभा सिसोदिया, सलीम खां खादीवाला, प्रमोद नेमा, ताजनुर खांन सहित वरिष्ठ पत्रकार एंव बुद्धिजिवियों ने वृक्षारोपण किया।